Saturday, August 20, 2016

रश्मिरथी



ऊँच-नीच का भेद न माने, वही श्रेष्ठ ज्ञानी है,
दया-धर्म जिसमें हो, सबसे वही पूज्य प्राणी है।


क्षत्रिय वही, भरी हो जिसमें निर्भयता की आग,

सबसे श्रेष्ठ वही ब्राह्मण है, हो जिसमें तप-त्याग।


तेजस्वी सम्मान खोजते नहीं गोत्र बतला के,
पाते हैं जग में प्रशस्ति अपना करतब दिखला के।

हीन मूल की ओर देख जग गलत कहे या ठीक,
वीर खींच कर ही रहते हैं इतिहासों में लीक।

तन से समरशूर, मन से भावुक, स्वभाव से दानी,
जाति-गोत्र का नहीं, शील का, पौरुष का अभिमानी।


ज्ञान-ध्यान, शस्त्रास्त्र, शास्त्र का कर सम्यक् अभ्यास,
अपने गुण का किया कर्ण ने आप स्वयं सुविकास।

नहीं फूलते कुसुम मात्र राजाओं के उपवन में,
अमित बार खिलते वे पुर से दूर कुञ्ज-कानन में।

समझे कौन रहस्य ? प्रकृति का बड़ा अनोखा हाल,
गुदड़ी में रखती चुन-चुन कर बड़े कीमती लाल।

'मूल जानना बड़ा कठिन है नदियों का, वीरों का,
धनुष छोड़ कर और गोत्र क्या होता रणधीरों का?

पाते हैं सम्मान तपोबल से भूतल पर शूर,
'जाति-जाति' का शोर मचाते केवल कायर क्रूर।

सच है, विपत्ति जब आती है, कायर को ही दहलाती है,
शूरमा नहीं विचलित होते, क्षण एक नहीं धीरज खोते,

विघ्नों को गले लगाते हैं, काँटों में राह बनाते हैं।
मुख से न कभी उफ कहते हैं, संकट का चरण न गहते हैं,

जो आ पड़ता सब सहते हैं, उद्योग-निरत नित रहते हैं,
शूलों का मूल नसाने को, बढ़ खुद विपत्ति पर छाने को।

है कौन विघ्न ऐसा जग में, टिक सके वीर नर के मग में
खम ठोंक ठेलता है जब नर, पर्वत के जाते पाँव उखड़।

मानव जब जोर लगाता है, पत्थर पानी बन जाता है।
गुण बड़े एक से एक प्रखर, है छिपे मानवों के भीतर,

मेंहदी में जैसे लाली हो, वर्तिका-बीच उजियाली हो,
बत्ती जो नही जलाता है, रोशनी नहीं वह पाता है।

वसुधा का नेता कौन हुआ? भूखण्ड-विजेता कौन हुआ?
अतुलित यश क्रेता कौन हुआ? नव-धर्म प्रणेता कौन हुआ?

जिसने न कभी आराम किया, विघ्नों में रहकर नाम किया।
जब विघ्न सामने आते हैं, सोते से हमें जगाते हैं,

मन को मरोड़ते हैं पल-पल, तन को झँझोरते हैं पल-पल।
सत्पथ की ओर लगाकर ही, जाते हैं हमें जगाकर ही।

मित्रता बड़ा अनमोल रतन, कब उसे तोल सकता है धन?
धरती की तो है क्या बिसात? आ जाय अगर बैकुंठ हाथ.

उसको भी न्योछावर कर दूँ, कुरूपति के चरणों में धर दूँ
"कुरूराज्य चाहता मैं कब हूँ? साम्राज्य चाहता मैं कब हूँ?

क्या नहीं आपने भी जाना? मुझको न आज तक पहचाना?
जीवन का मूल्य समझता हूँ, धन को मैं धूल समझता हूँ.

'सबको मिली स्नेह की छाया, नयी-नयी सुविधाएँ,
नियति भेजती रही सदा, पर, मेरे हित विपदाएँ.

मन-ही-मन सोचता रहा हूँ, यह रहस्य भी क्या है?
खोज खोज घेरती मुझी को जाने क्यों विपदा है?

‘जन्मा लेकर अभिशाप, हुआ वरदानी, आया बनकर कंगाल, कहाया दानी।
दे दिये मोल जो भी जीवन ने माँगे, सिर नहीं झुकाया कभी किसी के आगे।

‘भुवन की जीत मिटती है, भुवन में,उसे क्या खोजना, गिर कर पतन में?
शरण केवल उजागर धर्म होगा, सहारा अंत में सत्कर्म होगा.’


साभार : रश्मिरथी

‘रश्मिरथी’, या दिनकरजी की अन्य कवितायें पढ़कर आज भी उदास मन संकल्प से भर जाता है. लय, ताल, गेयता, छंद और अलंकार की चौहद्दी से बहुत आगे के कवि हैं, दिनकरजी. वह जीवन के कवि हैं. संघर्ष की आवाज हैं. चेतना को नये धरातल पर ले जानेवाले रचनाकार, मानव-मुक्ति के चिंतक हैं. हिंदी में शायद दिनकरजी उन कुछेक कवियों में से एक हुए, जिन्होंने मनुष्य के विकास (इवोल्यूशन) को समझने की कोशिश की. वह रामकृष्ण परमहंस, विवेकानंद, महर्षि अरविंद, रमण महर्षि, मुक्तानंद जी तक गये. मानव मुक्ति की तलाश में.

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