Friday, July 19, 2019

पहली बार स्कूल जा रहे एक बच्चे की मां का खत उसके प्रिंसिपल के नाम


आदरणीय महोदया,

आज मैं अपने बच्चे को बहुत डर, संशय, घबराहट, लेकिन कुछ उम्मीदों के साथ आपके पास भेज रही हूं. इनमें से कुछ मैं आपके साथ बांट रही हूं. इस खत की अधिकांश बातें आपको अजीब लगेंगी, लेकिन फिर भी आप एक बार उन पर ध्यान दें तो मैं आपकी आभारी रहूंगी.

अपनी जिंदगी के कीमती 14 साल मेरा बच्चा आपके संस्थान में बिताने वाला है. मैं एक छः साल का मुलायम-सा, मासूम बच्चा आपके पास भेज रही हूं. लेकिन, जब वह आपके संस्थान से बाहर आएगा, वह मूंछ-दाढ़ी वाला एक बालिग लड़का होगा, जिसकी आवाज तक बदल चुकी होगी. आप समझ सकती हैं, यह बहुत लंबा और बेहद कीमती समय है. इतने लंबे समय में आप बिना किसी हड़बड़ी के उसे इन तमाम चीजों के बारे में बहुत व्यवस्थित तरीके से बता सकते हैं, बशर्त कि आप बताना चाहें.

रोज शाम को घूमते हुए जब मैं अपने बच्चे को पढ़ाई का कुछ रटवा रही होती हूं, तो वह तंग होकर कहता है - ‘ओहो मम्मा, क्यों बार-बार बोलते जा रहे हो ये...अब और नहीं बोलना!’ यह सच है कि मैं भी उसे कम से कम इतनी छोटी उम्र में तो ये नहीं ही करवाना चाहती...पर, फिर भी मैं ऐसा कर रही हूं, क्योंकि मैं जानती हूं कि उसे कुछ समय बाद स्कूल जाना है और कक्षा में सबसे आगे होकर अपने परिवार वालों की इच्छा को पूरा करना है. पर असल में मैं शर्मिंदा हूं कि मैं उसके कच्चे दिमाग को अभी से, इस तरह से और उन चीजों से भर रही हूं, जो कि अभी उसकी जरूरत ही नहीं है. स्कूल न जाते हुए भी वह स्कूल के हिसाब से ही अपनी पढ़ाई का रूटीन पूरा करता है. ताकि एक दिन जब वह स्कूल जाने लगे तो अचानक उसे यह न लगे कि वह कहां फंस गया है.

अक्सर देखती हूं कि जरा-जरा से बच्चों को पहाड़े रटाए जाते हैं. मैं जानती हूं कि पहाड़े जिंदगी भर हिसाब-किताब लगाने में बहुत काम आते हैं. लेकिन जिस उम्र में उन्हें पहाड़े रटाये जाते हैं, उस उम्र में वे हिसाब-किताब से कोसों दूर होते हैं. और जब उन्हें हिसाब-किताब करना होता है, तब तक वे अक्सर पहाड़ों को भूल चुके होते हैं!

मेरा कहने का मतलब सिर्फ इतना है कि बच्चों पर कम उम्र में ज्यादा भार न डाला जाए. उनके दिमाग में पहले ऐसी चीजों को डाला जाए, जो उन्हें रटना नहीं है और जो जिंदगी भर उनके काम आएंगी... जैसे लड़की-लड़कों को परस्पर सहयोग करना सिखाया जाए. उन्हें बताया जाए कि उन्हें जिंदगी भर ऐसे ही सहयोगी बने रहना है, चाहे वे किसी भी रिश्ते में हों. यह बात जिंदगी भर न सिर्फ उनके काम आएगी, बल्कि वे अच्छे भाई-बहन, दोस्त, प्रेमी-प्रेमिका, पति-पत्नी और अच्छे माता-पिता बन सकेंगे. इससे एक स्वस्थ समाज की नींव पड़ेगी. उन्हें कंप्यूटर का ज्ञान दिया जाए, लेकिन साथ ही वे चीजें भी सिखाई जाएं, जो कि कंप्यूटर और मोबाइल उन्हें नहीं सिखा सकते. बच्चों को एक-दूसरे का विश्वासपात्र बनना सिखाया जाए, उन्हें अपने वायदे को हर हाल में पूरा करना सिखाया जाए, बुजुर्गो की मदद करना सिखाए जाए. उन्हें सिखाया जाए कि किन्नरों, प्राकृतिक रूप से अपंग और खुद से अलग तरह के लोगों का कभी भी मजाक नहीं उड़ाना चाहिए.

आप मेरे बच्चे को ‘सदा सच बोलो’ की बजाय ‘सदा सच सुनो और स्वीकार करो’ सिखाएं. आप जानती हैं कि हर कोई बचपन में ‘सदा सच बोलो’ ही सीखता आया है, लेकिन फिर भी समाज में झूठ का ही चलन बढ़ रहा है! आमतौर पर कोई सच नहीं बोलता. वह इसलिए कि सच सुनना और बर्दाश्त करना किसी को नहीं आता. सच सुनकर हम सब अक्सर बौखला जाते हैं. फिर कोई सच बोलकर आफत मोल क्यूं ले भला? यह ठीक है कि आज मेरे बच्चे को सिर्फ सच बोलने के रोल में ही रहना है, न कि सच को सुनकर बर्दाश्त करने के. लेकिन, कल को जब वह बड़ा होगा, तो उसे भी आने वाली पीढ़ी के सच को सुनने और सहन करने की आदत होनी चाहिए. यह आदत अभी से डाली जानी चाहिए, क्योंकि बच्चों को स्कूल में पढ़ाने का मतलब भविष्य के लिए तैयार करना भी है....क्या आप मेरी बात से सहमत हैं? क्या आप ऐसा कर सकेंगी?

आप मेरे बेटे को बताएं कि सिर्फ लड़का होने के कारण वह बहुत अहम या खास नहीं हो गया है. आफ उसके जैसे लड़कों को समझाएं कि लड़के ज्यादा खास तब बन सकते हैं, जब वे घर के भीतर और बाहर हमेशा, हर तरह के काम करने को खुशी-खुशी तैयार रहते हैं. खासतौर से उन्हें बताया जाए कि उन्हें अपनी मांओं से सीखना चाहिए कि कैसे वे ऑफिस और घर के कामों को एक साथ निबटाते हुए हर जगह अपना 100 प्रतिशत देकर खुश रहने को लालायित रहती हैं....साथ ही सिर्फ घर का काम संभालने वाली मांओं के अंतहीन श्रम के बारे में भी उन्हें बताया जाए और उसका सम्मान करना सिखाया जाए. उन्हें बताया जाए कि वे कभी भी अपनी घरेलू मां का परिचय ‘मेरी मां कुछ नहीं करती’ कहकर नहीं दें.

मैं चाहूंगी कि आप मेरे बेटे को, बल्कि स्कूल में आने वाले तमाम बेटों को सबसे पहले लड़कियों का असम्मान नहीं करना है, यह सिखाएं, लड़कियों को जिंदा इंसान समझना सिखाएं. हो सकता है इससे ज्यादा जरूरी कुछ और चीजें भी हों, लेकिन इस चीज को भी उतना ही जरूरी समझा जाए. बल्कि मैं समझती हूं कि ये बात अन्य तमाम जरूरी बातों से भी कहीं ज्यादा जरूरी है, क्योंकि इससे पूरे समाज की आधी आबादी के बेहद गंभीर सवाल जुड़े हुए हैं.

मेरे बेटे को सही निर्णय लेने के अभ्यास कराए जायें ताकि वह जिंदगी में सही समय पर सही निर्णय ले सके. खासतौर से लड़कियों को निर्णय लेना सिखाया जाए, क्योंकि उनके खून में दूसरों के निर्णय सुनने और मानने के जींस ज्यादा होते हैं. निर्णय लेने की बात आते ही वे विचलित न हों, उनमें इतना आत्मविश्वास भरिए... आप बच्चों के यह भी बताएं कि लड़कों के निर्णय ज्यादा अहम हैं और लड़कियों के निर्णय कम अहम यह बेहद गलत अवधारणा है! या फिर लड़कों के निर्णय अक्सर सही और लड़कियों के निर्णय अक्सर गलत होते हैं, यह बिलकुल गलत सोच है.

ठीक इसी समय आपको छोटी बच्चियों को यह भी बताना चाहिए कि वे सिर्फ लड़की होने के कारण हीन या लड़कों से कम महत्वपूर्ण नहीं हैं. आपको लड़कियों के भीतर जन्मजात होने वाले अपराधबोध को कम और फिर खत्म करने में मदद करनी चाहिए. उन्हें बताना चाहिए कि हर एक गलती के लिए खुद को जिम्मेदार ठहराना बेहद गलत और नकारात्मक सोच है, जो उनकी ऊर्जा को कम करती है!
बच्चों से शारीरिक श्रम जरूर करवाइये. ऐसा इसलिए, क्योंकि मैं देख रही हूं कि हर आने वाली पीढ़ी पिछली पीढ़ी की अपेक्षा शरीरिक रूप से काफी कमजोर है. वे पुरानी पीढ़ी से जल्दी थकते हैं, कम वजन उठा पाते हैं. कुल मिलाकर उन्हें सिखाया जाए कि स्वस्थ और ताकतवर बनने के लिए मेहनत करना कितना जरूरी है. आप बड़ी आसानी से यह नजारा हर सुबह कहीं भी देख सकते हैं कि बच्चे अपने स्कूल बैग तक का वजन नहीं उठाते. बच्चों की माएं अक्सर स्कूल बैग कंधों पर ढोती हैं. माएं नहीं जानती कि ऐसा करके वे असल में अपने बच्चों को कमजोर बना रही हैं.

एक और सबसे जरूरी चीज है, कि उन्हें अहसानमंद होना सिखाया जाए. न सिर्फ अपने मां-बाप के प्रति, बल्कि इस प्रकृति और इस समाज के प्रति, जिसके कारण वे जिंदा हैं. बच्चों को बताया जाए कि वे सिर्फ इसलिए ही नहीं एक अच्छा जीवन जी पा रहे हैं, कि उनके माता-पिता के पास हर तरह की सुविधा जुटाने के लिए बहुत सारे पैसे हैं. बल्कि वे इसलिए अच्छा जीवन जी रहें हैं कि उनकी हर एक सुविधा, जरूरत, आराम और खुशी के लिए दुनिया में असंख्य लोग दिन-रात काम में लगे हैं. आप मेरे और स्कूल के तमाम बच्चों को उन असंख्य, अनदेखे लोगों के प्रति अहसानमंद होना सिखाएं जो कि दिन-रात, जीवन भर, उनके आराम के लिए पता नहीं कब से खट रहे हैं और खटते रहेंगे!

मैं चाहती हूं कि आप मेरे बच्चे को यह जरूर बताएं कि जीवन की पहली जरूरत, यानी खाना, कैसे जुटाया जाता है. उसे पता होना चाहिए कि उसकी तीन वक्त की भूख के लिए कौन लोग, कैसे अपना जीवन खत्म करते हैं. मेरे बेटे को अहसास होना चाहिए कि वह इसलिए अच्छा खाना खा रहा है कि असंख्य किसान जलाने वाली धूप में खेतों में दिन-रात उसकी भूख के लिए अपनी कमर तोड़ रहे हैं...और मजदूर बंद कमरों में खुद को खपा रहे हैं.

क्या आप मेरे बेटे को सिखा सकेंगे कि जीतना अच्छा है, लेकिन हारना भी बुरा नहीं है? कक्षा में पहले, दूसरे, तीसरे नंबर पर आना अच्छा है, लेकिन कक्षा में पीछे रहना भी बुरा नहीं है. सबसे ज्यादा बुरा है कि उसके भीतर अच्छा इंसान बनने की ललक पैदा न होना! आप उसे बताएं कि इस दुनिया में डॉक्टर, प्रबंधक, इंजीनियर, वकील, आईएएस, उद्योगपति, व्यापारी बनना मुश्किल है. लेकिन इन सबसे कहीं ज्यादा मुश्किल है ‘अच्छा इंसान’ बनना और बने रहना! किसी पेशेवर से पहले आप उसमें ‘अच्छा इंसान’ बनने की ललक पैदा करें.

इस बात से आप इनकार नहीं कर सकते कि समाज में पढ़े-लिखे पेशेवरों की इतनी बड़ी फ़ौज के बावजूद पूरा विश्व् एक स्वस्थ समाज नहीं बन पा रहा है. यह सिर्फ इसलिए कि हम घरों, स्कूलों और कॉलेज के बच्चों को सिर्फ ‘अच्छा प्रोफशनल’ बनने की सीख देते हैं. हम अच्छा इंसान बनने की जरूरत को एक प्रतिशत भी एड्रेस नहीं करते. आज स्वस्थ, शांत और सुखी समाज की पहली जरूरत ‘अच्छे इंसान’ हैं, ‘अच्छे प्रोफेश्नल’ नहीं.

आप मेरे बेटे को जाति, धर्म, रंग, नस्ल के भेद से परे सबसे प्यार करना सिखाएं. मैं चाहती हूं कि मेरे बच्चे और तमाम बच्चों को सिर्फ अपने घर के लोगों का सम्मान और प्यार करना न सिखाया जाए...उन्हें अपने खून, जाति, धर्म, हैसियत के हिसाब से प्यार करना न सिखाया जाए. उन्हें अपने बड़ों का सम्मान करना जरूर सिखाया जाए, पर साथ ही यह भी बताया जाए कि बड़े होने के साथ सुपात्र होना भी जरूरी है. यदि कोई बड़ा बेहद गलत काम कर रहा है, तो वह सम्मान का नहीं बल्कि उपेक्षा का पात्र है. आप उसे अपनों की गलतियों को स्वीकार करना और दूसरों की खूबियों का सम्मान करना एक साथ सिखाएं.

बच्चों को बताया जाए कि सिर्फ अपने परिवार की खुशहाली के कारण कोई भी इंसान खुश नहीं रह सकता. उन्हें बताया जाए कि यदि हम दूसरों के अभाव, दुख, तंगी, तकलीफों तक नहीं पहुंचेंगे, तो वही दुख, संत्रास, अभाव इकठ्ठे होकर स्वयं उनके पास तक पहुंचेंगे और वह भी बेहद बुरे और भयानक तरीके से! इसका मतलब है कि अपने आस-पड़ोस की चीजों को अनदेखा करके नहीं जीना चाहिए.

मैं चाहूंगी कि कभी-कभी आप उसे बैंच, क्लास, चॉक, असाइनमेंट होमवर्क, टेस्ट और इवेल्युऐशन की दुनिया से बहुत दूर ले जाएं... आप उसे नदी, पहाड़, समुद्र, जंगल के पास ले जाएं...उसे बताएं कि असल में उसके जीवन में इन प्राकृतिक चीजों की भूमिका उसके माता-पिता से भी ज्यादा है! उसे समझ में आना चाहिए कि वह अपने मां-बाप के बिना तो फिर भी जीवित रह सकता है, पर इन चीजों के बिना उसका जीवन असंभव है! उसे पता होना चाहिए कि पहली बारिश की खुशबू से एक इत्र पैदा होता है.

मेरे बच्चे और स्कूल के तमाम बच्चों, बल्कि मैं तो कहूंगी कि दुनिया के तमाम बच्चों को, उनकी उम्र और दिमाग के हिसाब से इन बड़े इम्तिहानों के लिए भी तैयार किया जाए. ऐसा न हो कि स्कूल के इम्तिहानों में उन्हें इतना उलझा दिया जाए, कि असल जिंदगी के इम्तिहानों से जूझने की उनमें समझ और अक्ल ही न बचे! उनके दिमाग को इस कदर तेज और रचनात्मक बनाने की हरसंभव कोशिश की जाए कि वे इन बड़ी उलझनों को सुलझाने में सफल हो सकें. ये उनकी जिंदगी की वैसी ही चुनौतियां हैं, जैसी कि पढ़-लिखकर एक अच्छी सी नौकरी पा लेने की चुनौती होती हैं. बल्कि सच तो यह है कि इन भयंकर जटिल इम्तिहानों को पास करना, अच्छी नौकरी और अच्छा पैकेज पाने से कहीं ज्यादा चुनौती भरा है!
यदि ऐसा हुआ, तो आप भी उसके एक अच्छा इंसान बनाने की संभावना को खत्म करने के लिए बराबर के जिम्मेदार होंगे! आप एक स्वस्थ समाज की नींव डालने में अपने योगदान को न निभाने के दोषी होंगे! आपको अंदाजा भी नहीं कि आप किन-किन चीजों के गुनहगार होंगे...कृपया आप खुद भी गुनहगार होने से बचें और दूसरे मां-पिताओं को भी इस पाप से बचाएं.

जैसे वह अपने मां-बाप, भाई-बहन और दोस्तों के प्रति अपना प्यार जताता है, वैसे ही उसे प्रकृति की इन चीजों से भी प्यार करना आना चाहिए. जंगल में लगी आग पर उसे ऐसे ही दुख महसूस होना चाहिए, जैसे किसी अपने के मरने पर होता है. नदियों के गंदे पानी को देखकर उसे ऐसे ही तकलीफ होनी चाहिए जैसे अपने किसी प्रियजन को बेहद बीमार देखकर होती है. उसे सिर्फ तकलीफ जताना ही नहीं आना चाहिए, बल्कि उसका हल खोजने की कूवत आप उसमें पैदा करें.

मैं बहुत चुनौती भरे समय में अपने बच्चे को आपके पास भेज रही हूं. उसके सामने किताबों के कोर्स को घोलकर पी जाने और बेहद अच्छे नंबर या ग्रेड लाने से कहीं ज्यादा बड़ी चुनौतियां हैं. क्योंकि सबसे अच्छे नंबर लाने वाले या सबसे अच्छा ग्रेड पाने वाले बच्चे और सबसे ज्यादा पैकेज पाने वाले युवा भी इस समाज और दुनिया की चुनौतियों से वैसे ही जूझते हैं, जैसे कि कोई औसत नंबर पाने वाला बच्चा!
बढ़ती शिक्षा के साथ बढ़ती असहिष्णुता, असंवेदनशीलता, सांप्रदायिकता, स्त्रियों के प्रति हिंसा, यौन हिंसा, संहारक हथियारों की बढ़ती संख्या, हवा, पानी, मिट्टी का बढ़ता प्रदूषण, कटते जंगल, मौसम की बढ़ती अनिश्चित्ता, बेतहाशा बढ़ती प्राकृतिक आपदाएं, भूखे-प्यासे लोगों की बढ़ती संख्या, मुठ्ठी भर लोगों की बेलगाम इच्छाओं और चाहतों के लिए असंख्य लोगों को बुनियादी सुविधाओं से भी वंचित कर देना, उन्हें कुचलना आदि कुछ ऐसे मसले हैं, जिनसे आज के बच्चों को जूझना है. असल में यही जीवन के असली इम्तिहान हैं, लेकिन इनमें पास होने के लिए कहीं कोई तैयारी नहीं चल रही! मुझे बेहद दुख और अफसोस है कि दुनिया के किसी हिस्से में ऐसा कोई स्कूल मेरी जानकारी में नहीं चल रहा, जहां इन असली इम्तिहानों को पास कराने की तैयारी बच्चों को जोर-शोर से कराई जा रही हो!

बच्चों को समय रहते अपनी गलतियों के लिए दिल से माफी मांगने का सलीका भी आना चाहिए और माफ करने का शऊर भी. न सिर्फ मेरे बेटे को, बल्कि सारे बच्चों को एक साथ पत्थर की तरह मजबूत, अडिग और पानी की तरह गतिवान बनना भी सिखाइये...उनमें इतनी समझ पैदा करने की कोशिश करें, कि वे समझ सकें कि उन्हें कब पानी की तरह मुलायम बनना है और कब पत्थर की तरह कठोर?
आप मेरे बच्चे को हमेशा चेहरे पर बनावटी मुस्कुराहट चिपकाए रखने की बजाए, बुक्का फाड़कर हंसना सिखाएं. बल्कि उसे कहें कि कभी-कभी बुक्का फाड़कर रोना भी अदभुत होता है. आप उसे बताएं कि रोना सिर्फ लड़कियों का काम नहीं है! रोना मन शांत करने की एक बेहद सहज प्रक्रिया है, जो कि सच में बेहद कारगर होती है अक्सर. उसे समझाएं कि रोना कमजोर होने की निशानी कतई नहीं है और सबके सामने रोने में कोई शर्म की बात नहीं है.

मैं जानती हूं कि स्कूल कोई जादुई छड़ी नहीं है. बच्चे को ये तमाम चीजें स्कूल के साथ घर में भी सिखाई, बताई जायेंगी, तभी वह इन सबके बारे में सोचेगा. मेरा आपसे वादा है कि मैं इस खत में लिखी ज्यादातर चीजें अपने बेटे को बताने की हरसंभव कोशिश करूंगी. लेकिन मुझे डर है कि यदि आप उसे अपने उसी पुराने ढर्रे पर ले जाएंगे (यानी रटने, होमवर्क के ढेर, परीक्षाओं के अंबार, ऐसे असाइनमेंट जो कि वह खुद नहीं कर सकेगा, बल्कि उसके मां-बाप करेंगे), तो फिर मैं भी उसे सिर्फ इसी ‘बाधा-दौड़’ को जिताने में ही लगी रहूंगी, और उसे ये सब कभी नहीं सिखा पाऊंगी.

एक अजनबी ऑटोवाले की बात से मै अपना खत ख़त्म करती हूं. उसने कहा था -‘इस दुनिया में जो पैदा हुआ है, वह हरेक इंसान कमाना और पेट भरना जानता है. लेकिन दुआ लेना हर कोई नहीं जानता.’ मैं चाहती हूं कि आप मेरे बच्चे को और स्कूल के तमाम बच्चों को दुआ लेने की कला सिखाएं.
सादर,
एक मां

Father Forgets



डबल्यू लिविंगस्टन लारनेड यह पत्र हर पिता को पढ़ना चाहिए- हर माँ को भी...

सुनो बेटे ! मैं तुमसे कुछ कहना चाहता हूं । तुम गहरी नींद में सो रहे हो । तुम्हारा नन्हा सा हाथ तुम्हारे नाजुक गाल के नीचे दबा है और तुम्हारे पसीना-पसीना ललाट पर घुंघराले बाल बिखरे हुए हैं । मैं तुम्हारे कमरे में चुपके से दाखिल हुआ हूं , अकेला । अभी कुछ मिनट पहले जब मैं लाइब्रेरी में अखबार पढ़ रहा था, तो मुझे बहुत पश्चाताप हुआ । इसीलिए तो आधी रात को मैं तुम्हारे पास खड़ा हूं किसी अपराधी की तरह ।

जिन बातों के बारे में मैं सोच रहा था , वे ये है बेटे । मैं आज तुम पर बहुत नाराज हुआ । जब तुम स्कूल जाने के लिए तैयार हो रहे थे , तब मैंने तुम्हें खूब डांटा ... तुमने टोवेल के बजाए पर्दे से हाथ पोंछ लिए थे । तुम्हारे जूते गंदे थे इस बात पर भी मैंने तुम्हें कोसा । तुमने फर्श पर इधर-उधर चीजें फेंक रखी थी .. इस पर मैंने तुम्हें भला बुरा कहा । नाश्ता करते वक्त भी मैं तुम्हारी एक के बाद एक गलतियां निकालता रहा । तुमने डाइनिंग टेबल पर खाना बिखरा दिया था खाते समय तुम्हारे मुंह से चपड़ चपड़ की आवाज़ आ रही थी । मेज पर तुमने कोहनियां भी टिका रखी थी । तुमने ब्रेड पर बहुत सारा मक्खन भी चुपड़ लिया था । यही नहीं जब मैं ऑफिस जा रहा था और तुम खेलने जा रहे थे और तुमने मुड़कर हाथ हिलाकर बाय-बाय डैडी कहा था , तब भी मैंने भृकुटी तान कर टोका था । अपना कॉलर ठीक करो ।

शाम को भी मैंने यही सब किया । ऑफिस से लौटकर मैंने देखा कि तुम दोस्तों के साथ मिट्टी में खेल रहे थे , तुम्हारे कपड़े गंदे थे , तुम्हारे मोजों में छेद हो गए थे । मैं तुम्हें पकड़कर ले गया और तुम्हारे दोस्तों के सामने तुम्हें अपमानित किया । मोजे महंगे हैं -- जब तुम्हें खरीदने पड़ेंगे तब तुम्हें इनकी कीमत समझ में आएगी । जरा सोचो तो सही , एक पिता अपने बेटे का इस से ज्यादा दिल किस तरह दुखा सकता है ?

क्या तुम्हें याद है जब मैं लाइब्रेरी में पढ़ रहा था तब तुम रात को मेरे कमरे में आए थे । किसी सहमे हुए मृगछौने की तरह । तुम्हारी आंखें बता रही थीं कि तुम्हें कितनी चोट पहुंची है । और मैंने अखबार के ऊपर से देखते हुए पढ़ने में बाधा डालने के लिए तुम्हें झिड़क दिया था । " कभी तो चैन से रहने दिया करो अब क्या बात है ? " और तुम दरवाजे पर ही ठिठक गए थे । तुमने कुछ नहीं कहा था बस भागकर मेरे गले में अपनी बाहें डाल कर मुझे चूमा था और गुड नाइट कहकर चले गए थे । तुम्हारी नन्ही बाहों की जकड़न बता रही थी कि तुम्हारे दिल में ईश्वर ने प्रेम का ऐसा फूल खिलाया है जो इतनी उपेक्षा के बाद भी नहीं मुरझाया । और फिर तुम सीढ़ियों पर खटखट करके चढ़ गए । 

तो बेटे , इस घटना के कुछ ही देर बाद मेरे हाथों से अखबार छूट गया और मुझे बहुत ग्लानि हुई । यह क्या होता जा रहा है मुझे ? गलतियां ढूंढने की डांटने -डपटने की आदत सी पड़ती जा रही है मुझे । अपने बच्चे के बचपन का मैं यह पुरस्कार दे रहा हूं ? ऐसा नहीं है बेटे कि मैं तुम्हें प्यार नहीं करता , पर मैं एक बच्चे से जरूरत से ज्यादा उम्मीदें लगा बैठा था । मैं तुम्हारे व्यवहार को अपनी उम्र के तराजू पर तौल रहा था ।

तुम इतने प्यारे हो , इतने अच्छे और सच्चे । तुम्हारा नन्हा सा दिल इतना बड़ा है जैसे चौड़ी पहाड़ियों के पीछे से उगती सुबह । तुम्हारा बड़प्पन इसी बात से नजर आता है कि दिनभर डांटते रहने वाले पापा को भी तुम रात को गुड नाईट किस देने आए । आज की रात और कुछ भी महत्वपूर्ण नहीं है , बेटे । मैं अंधेरे में तुम्हारे सिरहाने आया हूं और मैं यहां पर घुटने टिकाए बैठा हूं , शर्मिंदा ।

यह एक कमजोर पश्चाताप है । मैं जानता हूं कि अगर मैं तुम्हें जगा कर यह सब कहूंगा , तो शायद तुम नहीं समझ पाओगे । पर कल से मैं सचमुच तुम्हारा प्यारा पापा बन कर दिखाऊंगा । मैं तुम्हारे साथ खेलूंगा , तुम्हारी मजेदार बातें मन लगाकर सुनूंगा , तुम्हारे साथ खुलकर हँसूँगा और तुम्हारी तकलीफों को बांटूंगा । आगे से जब भी मैं तुम्हें डांटने के लिए मुंह खोलूंगा , तो इससे पहले अपनी जीभ को अपने दांतों में दबा लूंगा ।मैं बार-बार किसी मंत्र की तरह यह कहना सीखूंगा , " वह तो अभी बच्चा है .... छोटा सा बच्चा ।"

मुझे अफसोस है कि मैंने तुम्हें बच्चा नहीं ,बड़ा मान लिया था ।परंतु आज जब मैं तुम्हें गुड़ी मुड़ी और थका-थका पलंग पर सोया देख रहा हूं बेटे , तो मुझे एहसास होता है तुम अभी बच्चे ही तो हो । कल तक तुम अपनी मां की बाहों में थे उसके कंधे पर सिर रखे । मैंने तुमसे कितनी ज्यादा उम्मीदें की थी कितनी ज्यादा...

- डबल्यू लिविंगस्टन लारनेड