Sunday, October 14, 2012

वह प्रेम करेगी



वह प्रेम करेगी -
और चांद खिल उठेगा आकाश में
सुनाई देगा बादलों का कोरस,


वह प्रेम करेगी -
और मैं भेज दूंगा बादलों को
जलते हुए रेगिस्तानों में,


वह प्रेम करेगी -
और आकाश में दिखाई देंगे इंद्रधनुष के सातों रंग


वह प्रेम करेगी -
और थम जायेगा हिरोशिमा का तांडव
लातूर का भूकंप,
अफ्रीका के अरण्य में पहली बार उगेगा सूरज
सागर की छाती पर फिर कोई जहाज नहीं डूबेगा,
फिर विसुवियस के पहाड़ आग नहीं उगलेंगे,


वह प्रेम करेगी -
और मैं देखूंगा अनंत में डूबा आकाश
देखूंगा - मोर के पंखों का रंग,
प्यार करूंगा - जिन्हें कभी किसी ने प्यार नहीं किया,
देखूंगा - लहरों के उल्लास में
उफनती मछलियां
पंछी .. विषधर सांपों के अनोखे खेल
ऋतुमती पृथ्वी
झीलों का गहरा पानी
अज्ञात की ओर जाती अनंत चीटियों की कतार,
किसी प्राचीन आकाशगंगा में हम दोनों खेलेंगे
चांद और सूरज की गेंद से,


वह प्रेम करेगी -
और मैं उसे भेजूंगा
अंजुरी भर धूप
एक मुट्ठी आसमान
एक टुकड़ा चांद
थोड़े-से तारे,


वह प्रेम करेगी -
और किसी दिन
जाकर न लौट पाने की
असंभव दूरी से
जो आखिरी बार हाथ हिला कर
मन ही मन केवल कह सकूं विदा ..

जीवन के किसी मधुरतम क्षण में
तिस्ता किनारे सौंपना मुझे
तुम्हारी आंखों का एक बूंद पानी
और हृदय का थोड़ा-सा प्यार!


-उत्पल बनर्जी

 धन की चाह में रिश्ते खत्म हो रहे हैं. किसी के पास समय नहीं है कि वह दो पल ठहर कर इस शाश्वत अनुभूति को स्थान दे और महसूस करे इसकी गरमाहट व ऊष्मा. ऐसे समय में उत्पल बनर्जी की प्रेम कविताएं हमें एक नये धरातल पर ले जाती हैं. जहां दुनिया और प्रकृति अलग रंगों से भरी दिखायी देती हैं.

Thursday, October 11, 2012

काश लौट आता वो बचपन कहीं से...


                                                काश फिर से दो बरस की हो जाती ये उमरिया,
                                                जब घुटनों के बल हमसब चलना सीखा करते थे
                                                बार-बार गिरते थे और बार-बार समभलते,
                                                पर धीरे-धीरे यूँ ही मंज़िल का पीछा करते थे

                                                जब सच-झूठ की परख ना थी,
                                                और सब अपने से लगते थे
                                                जब हर बुराई से बच लेने को हम आँखें मींचा करते थे
                                                जब दुश्मन जैसा कोई लफ़्ज़ ना था,
                                                और सब याराना लगता था
                                                दादी की कहानी बस सच थी,
                                                और बाकी सब फ़साना लगता था 

                                               उसी पल में जाने को फिर जाने क्यूँ दिल करता है,
                                               सब कुछ पास होने पर भी ये बचपन ढूँढा करता है
                                               काश मैं फिर पा लेती वही छोटी सी नगरिया,
                                               और काश फिर से दो बरस की हो जाती ये उमरिया...
 

Friday, August 10, 2012

"Heaven of freedom "


                                              Where the mind is without fear and the head is held high 

                                              Where knowledge is free 


                                              Where the world has not been broken up into fragments


                                              By narrow domestic walls 


                                              Where words come out from the depth of truth 


                                              Where tireless striving stretches its arms towards perfection 


                                              Where the clear stream of reason has not lost its way 


                                              Into the dreary desert sand of dead habit 


                                              Where the mind is led forward by thee 


                                              Into ever-widening thought and action 


                                              Into that heaven of freedom, my Father, let my country awake 



                                            -Rabindranath Tagore

Wednesday, August 1, 2012

मधुशाला



मृदु भावों के अंगूरों की आज बना लाया हाला,
प्रियतम, अपने ही हाथों से आज पिलाऊँगा प्याला,

पहले भोग लगा लूँ तेरा फिर प्रसाद जग पाएगा,
सबसे पहले तेरा स्वागत करती मेरी मधुशाला।।

मदिरालय जाने को घर से चलता है पीनेवाला,
'किस पथ से जाऊँ?' असमंजस में है वह भोलाभाला,

अलग-अलग पथ बतलाते सब पर मैं यह बतलाता हूँ -
'राह पकड़ तू एक चला चल, पा जाएगा मधुशाला।'।

धर्मग्रन्थ सब जला चुकी है, जिसके अंतर की ज्वाला,
मंदिर, मसजिद, गिरिजे, सब को तोड़ चुका जो मतवाला,

पंडित, मोमिन, पादिरयों के फंदों को जो काट चुका,
कर सकती है आज उसी का स्वागत मेरी मधुशाला।।

बजी न मंदिर में घड़ियाली, चढ़ी न प्रतिमा पर माला,
बैठा अपने भवन मुअज्ज़िन देकर मस्जिद में ताला,

लुटे ख़जाने नरपितयों के गिरीं गढ़ों की दीवारें,
रहें मुबारक पीनेवाले, खुली रहे यह मधुशाला।।

बड़े बड़े परिवार मिटें यों, एक न हो रोनेवाला,
हो जाएँ सुनसान महल वे, जहाँ थिरकतीं सुरबाला,

राज्य उलट जाएँ, भूपों की भाग्य सुलक्ष्मी सो जाए,
जमे रहेंगे पीनेवाले, जगा करेगी मधुशाला।।

एक बरस में, एक बार ही जगती होली की ज्वाला,
एक बार ही लगती बाज़ी, जलती दीपों की माला,

दुनियावालों, किन्तु, किसी दिन आ मदिरालय में देखो,
दिन को होली, रात दिवाली, रोज़ मनाती मधुशाला।।

बनी रहें अंगूर लताएँ जिनसे मिलती है हाला,
बनी रहे वह मिटटी जिससे बनता है मधु का प्याला,

बनी रहे वह मदिर पिपासा तृप्त न जो होना जाने,
बनें रहें ये पीने वाले, बनी रहे यह मधुशाला।।

मुसलमान औ' हिन्दू है दो, एक, मगर, उनका प्याला,
एक, मगर, उनका मदिरालय, एक, मगर, उनकी हाला,

दोनों रहते एक न जब तक मस्जिद मन्दिर में जाते,
बैर बढ़ाते मस्जिद मन्दिर मेल कराती मधुशाला!।

लिखी भाग्य में जितनी बस उतनी ही पाएगा हाला,
लिखा भाग्य में जैसा बस वैसा ही पाएगा प्याला,

लाख पटक तू हाथ पाँव, पर इससे कब कुछ होने का,
लिखी भाग्य में जो तेरे बस वही मिलेगी मधुशाला।।

अपने युग में सबको अनुपम ज्ञात हुई अपनी हाला,
अपने युग में सबको अदभुत ज्ञात हुआ अपना प्याला,

फिर भी वृद्धों से जब पूछा एक यही उत्तर पाया 
अब न रहे वे पीनेवाले, अब न रही वह मधुशाला!।

जितनी दिल की गहराई हो उतना गहरा है प्याला,
जितनी मन की मादकता हो उतनी मादक है हाला,

जितनी उर की भावुकता हो उतना सुन्दर साकी है,
जितना हो जो रिसक, उसे है उतनी रसमय मधुशाला।।                             


 -हरिवंशराय बच्चन

About poem :  Madhushala is one of the most popular book of Hindi poetry. There was a time that this work of poet Harivansh Rai Bachchan, comprising 135 verses, was a craze. Here are few selected verses from Madhushala.

Saturday, July 28, 2012

कोशिश करने वालों की


                                                  












लहरों से डर कर नौका पार नहीं होती
कोशिश करने वालों की कभी हार नही होती

नन्ही चींटीं जब दाना ले कर चढ़ती है
चढ़ती दीवारों पर सौ बार फिसलती है
मन का विश्वास रगॊं मे साहस भरता है
चढ़ कर गिरना, गिर कर चढ़ना न अखरता है
मेहनत उसकी बेकार नहीं हर बार होती
कोशिश करने वालों की कभी हार नही होती


डुबकियाँ सिंधु में गोताखोर लगाता है
जा-जा कर खाली हाथ लौट कर आता है
मिलते न सहज ही मोती गेहरे पानी में
बढ़ता दूना विश्वास इसी हैरानी में
मुट्ठी उसकी खाली हर बार नहीं होती
कोशिश करने वालों की कभी हार नही होती

असफलता एक चुनौती है, स्वीकार करो
क्या कमी रह गयी देखो और सुधार करो
जब तक न सफल हो नींद-चैन को त्यागो तुम
संघर्षों का मैदान छोड़ मत भागो तुम
कुछ किए बिना ही जयजयकार नहीं होती
कोशिश करने वालों की कभी हार नही होती

 - हरिवंश राय बच्चन

Thursday, July 26, 2012

भर देते हो




भर देते हो
बार-बार, प्रिय, करुणा की किरणों से
क्षुब्ध हृदय को पुलकित कर देते हो ।

मेरे अन्तर में आते हो, देव, निरन्तर,
कर जाते हो व्यथा-भार लघु
बार-बार कर-कंज बढ़ाकर;

अंधकार में मेरा रोदन
सिक्त धरा के अंचल को
करता है क्षण-क्षण-

कुसुम-कपोलों पर वे लोल शिशिर-कण
तुम किरणों से अश्रु पोंछ लेते हो,
नव प्रभात जीवन में भर देते हो ।

- सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"

एक आशीर्वाद



जा तेरे स्वप्न बड़े हों।
भावना की गोद से उतर कर
जल्द पृथ्वी पर चलना सीखें।

चाँद तारों सी अप्राप्य ऊचाँइयों के लिये
रूठना मचलना सीखें।

हँसें
मुस्कुराऐं
गाऐं।

हर दीये की रोशनी देखकर ललचायें
उँगली जलायें।
अपने पाँव पर खड़े हों।
जा तेरे स्वप्न बड़े हों।

- दुष्यंत कुमार

Wednesday, July 25, 2012

"On Her Head"



Near Ekuvukeni,
in Natal, South Africa,
a woman carries water on her head.
After a year of drought,
when one child in three is at risk of death,
she returns from a distant well,
carrying water on her head.
The pumpkins are gone,
the tomatoes withered,
yet the woman carries water on her head.
The cattle kraals are empty,
the goats gaunt-
no milk now for children,
but she is carrying water on her head.
The engineers have reversed the river:
those with power can keep their power,
but one woman is carrying water on her head.
In the homelands, where the dusty crowds
watch the empty roads for water trucks,
one woman trusts herself with treasure,
and carries water on her head.
The sun does not dissuade her,
not the dried earth that blows against her,
as she carries the water on her head.
In a huge and dirty pail,
with an idle handle,
resting on a narrow can,
this woman is carrying water on her head.
This woman, who girds her neck
with safety pins, this one
who carries water on her head,
trusts her own head to bring to her people
what they need now
between life and death:
She is carrying them water on her head.


- Joan Murray

Tuesday, July 24, 2012

और भी दूँ



मन समर्पित, तन समर्पित
और यह जीवन समर्पित
चाहता हूँ देश की धरती तुझे कुछ और भी दूँ !

माँ, तुम्हारा ऋण बहुत है, मैं अंकिचन
किंतु इतना कर रहा फिर भी निवेदन
थाल में लाऊँ सजाकर भाल जब भी
कर दया स्वीकार लेना वह समर्पण
गान अर्पित, प्राण अर्पित
रक्त का कण-कण समर्पित
चाहता हूँ देश की धरती तुझे कुछ और भी दूँ ! 

कर रहा आराधना मैं आज तेरी
एक विनती तो करो स्वीकार मेरी
भाल पर मल दो चरण की धूल थोड़ी
शीश पर आशीष की छाया घनेरी
स्वप्न अर्पित, प्रश्न अर्पित
आयु का क्षण-क्षण समर्पित
चाहता हूँ देश की धरती तुझे कुछ और भी दूँ !

तोड़ता हूँ मोह का बंधन क्षमा दो
गाँव मेरे, द्वार, घर, आँगन क्षमा दो
देश का जयगान अधरों पर सजा है
देश का ध्वज हाथ में केवल थमा दो
ये सुमन लो, यह चमन लो
नीड़ का तृण-तृण समर्पित
चाहता हूँ देश की धरती तुझे कुछ और भी दूँ !


 - रामावतार त्यागी

About poem :

 I had read this poem by Ram Avtar Tyagi in school Hindi text book. It left a deep impression. It may moisten eyes of some readers, especially those who feel special affinity for India. And that is why this is such a special poem.

धन्यवाद



जिस जिससे पथ पर स्नेह मिला
उस उस राही को धन्यवाद ।


जीवन अस्थिर अनजाने ही
हो जाता पथ पर मेल कहीं
सीमित पग-डग, लम्बी मंज़िल
तय कर लेना कुछ खेल नहीं


दाएँ-बाएँ सुख-दुख चलते
सम्मुख चलता पथ का प्रमाद
जिस जिससे पथ पर स्नेह मिला
उस उस राही को धन्यवाद ।


साँसों पर अवलम्बित काया
जब चलते-चलते चूर हुई
दो स्नेह-शब्द मिल गए, मिली
नव स्फूर्ति थकावट दूर हुई


पथ के पहचाने छूट गए
पर साथ-साथ चल रही याद
जिस जिससे पथ पर स्नेह मिला
उस उस राही को धन्यवाद ।


जो साथ न मेरा दे पाए
उनसे कब सूनी हुई डगर
मैं भी न चलूँ यदि तो भी क्या
राही मर लेकिन राह अमर


इस पथ पर वे ही चलते हैं
जो चलने का पा गए स्वाद
जिस जिससे पथ पर स्नेह मिला
उस उस राही को धन्यवाद ।


कैसे चल पाता यदि न मिला
होता मुझको आकुल-अन्तर
कैसे चल पाता यदि मिलते
चिर-तृप्ति अमरता-पूर्ण प्रहर


आभारी हूँ मैं उन सबका
दे गए व्यथा का जो प्रसाद
जिस जिससे पथ पर स्नेह मिला
उस उस राही को धन्यवाद ।



-शिवमंगल सिंह ‘सुमन

About poem :

Here is a moving poem by Shivmangal Singh Suman Ji. Towards the end of the great journey of life, this poem is an expression of gratitude, to all those who provided affection, comforts and companionship. And even those who gave sorrows


Friday, July 20, 2012

ठुकरा दो या प्यार करो



देव! तुम्हारे कई उपासक कई ढंग से आते हैं
सेवा में बहुमूल्य भेंट वे कई रंग की लाते हैं

धूमधाम से साज-बाज से वे मंदिर में आते हैं
मुक्तामणि बहुमुल्य वस्तुऐं लाकर तुम्हें चढ़ाते हैं

मैं ही हूँ गरीबिनी ऐसी जो कुछ साथ नहीं लायी
फिर भी साहस कर मंदिर में पूजा करने चली आयी

धूप-दीप-नैवेद्य नहीं है झांकी का श्रृंगार नहीं
हाय! गले में पहनाने को फूलों का भी हार नहीं

कैसे करूँ कीर्तन, मेरे स्वर में है माधुर्य नहीं
मन का भाव प्रकट करने को वाणी में चातुर्य नहीं

नहीं दान है, नहीं दक्षिणा खाली हाथ चली आयी
पूजा की विधि नहीं जानती, फिर भी नाथ चली आयी

पूजा और पुजापा प्रभुवर इसी पुजारिन को समझो
दान-दक्षिणा और निछावर इसी भिखारिन को समझो

मैं उनमत्त प्रेम की प्यासी हृदय दिखाने आयी हूँ
जो कुछ है, वह यही पास है, इसे चढ़ाने आयी हूँ

चरणों पर अर्पित है, इसको चाहो तो स्वीकार करो
यह तो वस्तु तुम्हारी ही है ठुकरा दो या प्यार करो


 -सुभद्राकुमारी चौहान

Thursday, July 19, 2012

नर हो, न निराश करो मन को



नर हो, न निराश करो मन को
कुछ काम करो, कुछ काम करो
जग में रह कर कुछ नाम करो
यह जन्म हुआ किस अर्थ अहो
समझो जिसमें यह व्यर्थ न हो
कुछ तो उपयुक्त करो तन को
नर हो, न निराश करो मन को

संभलों कि सुयोग न जाय चला
कब व्यर्थ हुआ सदुपाय भला
समझो जग को न निरा सपना
पथ आप प्रशस्त करो अपना
अखिलेश्वर है अवलंबन को
नर हो, न निराश करो मन को

जब प्राप्त तुम्हें सब तत्त्व यहाँ
फिर जा सकता वह सत्त्व कहाँ
तुम स्वत्त्व सुधा रस पान करो
उठके अमरत्व विधान करो
दवरूप रहो भव कानन को
नर हो न निराश करो मन को

निज़ गौरव का नित ज्ञान रहे
हम भी कुछ हैं यह ध्यान रहे
मरणोंत्‍तर गुंजित गान रहे
सब जाय अभी पर मान रहे
कुछ हो न तज़ो निज साधन को
नर हो, न निराश करो मन को

प्रभु ने तुमको दान किए
सब वांछित वस्तु विधान किए
तुम प्राप्‍त करो उनको न अहो
फिर है यह किसका दोष कहो
समझो न अलभ्य किसी धन को
नर हो, न निराश करो मन को

किस गौरव के तुम योग्य नहीं
कब कौन तुम्हें सुख भोग्य नहीं
जान हो तुम भी जगदीश्वर के
सब है जिसके अपने घर के
फिर दुर्लभ क्या उसके जन को
नर हो, न निराश करो मन को

करके विधि वाद न खेद करो
निज़ लक्ष्य निरन्तर भेद करो
बनता बस उद्‌यम ही विधि है
मिलती जिससे सुख की निधि है
समझो धिक् निष्क्रिय जीवन को
नर हो, न निराश करो मन को
कुछ काम करो, कुछ काम करो


- मैथिलीशरण गुप्त

दीप से दीप जले




सुलग-सुलग री जोत दीप से दीप मिलें
कर-कंकण बज उठे, भूमि पर प्राण फलें।

लक्ष्मी खेतों फली अटल वीराने में
लक्ष्मी बँट-बँट बढ़ती आने-जाने में
लक्ष्मी का आगमन अँधेरी रातों में
लक्ष्मी श्रम के साथ घात-प्रतिघातों में
लक्ष्मी सर्जन हुआ
कमल के फूलों में
लक्ष्मी-पूजन सजे नवीन दुकूलों में।।

गिरि, वन, नद-सागर, भू-नर्तन तेरा नित्य विहार
सतत मानवी की अँगुलियों तेरा हो शृंगार
मानव की गति, मानव की धृति, मानव की कृति ढाल
सदा स्वेद-कण के मोती से चमके मेरा भाल
शकट चले जलयान चले
गतिमान गगन के गान
तू मिहनत से झर-झर पड़ती, गढ़ती नित्य विहान।।

उषा महावर तुझे लगाती, संध्या शोभा वारे
रानी रजनी पल-पल दीपक से आरती उतारे,
सिर बोकर, सिर ऊँचा कर-कर, सिर हथेलियों लेकर
गान और बलिदान किए मानव-अर्चना सँजोकर
भवन-भवन तेरा मंदिर है
स्वर है श्रम की वाणी
राज रही है कालरात्रि को उज्ज्वल कर कल्याणी।।

वह नवांत आ गए खेत से सूख गया है पानी
खेतों की बरसन कि गगन की बरसन किए पुरानी
सजा रहे हैं फुलझड़ियों से जादू करके खेल
आज हुआ श्रम-सीकर के घर हमसे उनसे मेल।
तू ही जगत की जय है,
तू है बुद्धिमयी वरदात्री
तू धात्री, तू भू-नव गात्री, सूझ-बूझ निर्मात्री।।

युग के दीप नए मानव, मानवी ढलें
सुलग-सुलग री जोत! दीप से दीप जलें।



 - माखनलाल चतुर्वेदी

पुष्प की अभिलाषा

चाह नहीं मैं सुरबाला के

गहनों में गूँथा जाऊँ,

चाह नहीं प्रेमी-माला में

बिंध प्यारी को ललचाऊँ,
 
चाह नहीं, सम्राटों के शव

पर, हे हरि, डाला जाऊँ

चाह नहीं, देवों के शिर पर,

चढ़ूँ भाग्य पर इठलाऊँ!

मुझे तोड़ लेना वनमाली!

उस पथ पर देना तुम फेंक,

मातृभूमि पर शीश चढ़ाने

जिस पथ जावें वीर अनेक।


- माखनलाल चतुर्वेदी

Saturday, July 7, 2012

"When Nature Wants a Man"

 
                                                     

 When Nature wants to drill a man
And thrill a man,
And skill a man,
When Nature wants to mould a man
To play the noblest part;
When she yearns with all her heart
To create so great and bold a man
That all the world shall praise--

Watch her method, watch her ways!

How she ruthlessly perfects
Whom she royally elects;
How she hammers him and hurts him
And with mighty blows converts him
Into trial shapes of clay which only Nature understands--

While his tortured heart is crying and he lifts beseeching hands!--

How she bends, but never breaks,
When his good she undertakes....
How she uses whom she chooses
And with every purpose fuses him,
By every art induces him
To try his splendor out--
Nature knows what she's about.

When Nature wants to take a man

And shake a man
And wake a man;
When Nature wants to make a man
To do the Future's will;
When she tries with all her skill
And she yearns with all her soul
To create him large and whole....
With what cunning she prepares him!

How she goads and never spares him,

How she whets him and she frets him
And in poverty begets him....
How she often disappoints
Whom she sacredly anoints,
With what wisdom she will hide him,
Never minding what betide him
Though his genius sob with slighting and his pride may not forget!
Bids him struggle harder yet.
Makes him lonely
So that only
God's high messages shall reach him
So that she may surely teach him
What the Hierarchy planned.

Though he may not understand

Gives him passions to command--
How remorselessly she spurs him,
With terrific ardor stirs him
When she poignantly prefers him!

When Nature wants to name a man

And fame a man
And tame a man;
When Nature wants to shame a man
To do his heavenly best....
When she tries the highest test
That her reckoning may bring--
When she wants a god or king!--
How she reins him and restrains him
So his body scarce contains him
While she fires him
And inspires him!
Keeps him yearning, ever burning for a tantalising goal--
Lures and lacerates his soul.
Sets a challenge for his spirit,
Draws it higher when he's near it--
Makes a jungle, that he clear it;
Makes a desert, that he fear it
And subdue it if he can--
So doth Nature make a man.

Then, to test his spirit's wrath

Hurls a mountain in his path--
Puts a bitter choice before him
And relentless stands o'er him.
"Climb, or perish!" so she says....
Watch her purpose, watch her ways!

Nature's plan is wondrous kind

Could we understand her mind ...
Fools are they who call her blind.
When his feet are torn and bleeding
Yet his spirit mounts unheeding,
All his higher powers speeding
Blazing newer paths and fine;
When the force that is divine
Leaps to challenge every failure and his ardor still is sweet
And love and hope are burning in the presence of defeat....

Lo, the crisis! Lo, the shout

That must call the leader out.
When the people need salvation
Doth he come to lead the nation....
Then doth Nature show her plan
When the world has found--a man! 

 

 - Angela Morgan

 

 

"Stopping by Woods on a Snowy Evening"

                                                           

"Stopping by Woods on a Snowy Evening"
                                                  

                                                         Whose woods these are I think I know.
                                                 His house is in the village, though;
                                                 He will not see me stopping here
                                                 To watch his woods fill up with snow.

                                                 My little horse must think it queer
                                                 To stop without a farmhouse near
                                                 Between the woods and frozen lake
                                                 The darkest evening of the year.

                                                 He gives his harness bells a shake
                                                 To ask if there is some mistake.
                                                 The only other sound's the sweep
                                                 Of easy wind and downy flake.

                                                 The woods are lovely, dark, and deep,
                                                 But I have promises to keep,
                                                 And miles to go before I sleep,
                                                 And miles to go before I sleep. 

                                                             -Robert Frost                          

                               

 

Friday, July 6, 2012

मेरे दीपक




मधुर मधुर मेरे दीपक जल!
युग युग प्रतिदिन प्रतिक्षण प्रतिपल;
प्रियतम का पथ आलोकित कर!

सौरभ फैला विपुल धूप बन;
मृदुल मोम-सा घुल रे मृदु तन;
दे प्रकाश का सिंधु अपरिमित,
तेरे जीवन का अणु गल-गल!
पुलक-पुलक मेरे दीपक जल!

सारे शीतल कोमल नूतन,
माँग रहे तुझको ज्वाला-कण;
विश्वशलभ सिर धुन कहता "मैं
हाय न जल पाया तुझमें मिल"!
सिहर-सिहर मेरे दीपक जल!

जलते नभ में देख असंख्यक;
स्नेहहीन नित कितने दीपक;
जलमय सागर का उर जलता;
विद्युत ले घिरता है बादल!
विहंस-विहंस मेरे दीपक जल!

द्रुम के अंग हरित कोमलतम,
ज्वाला को करते हृदयंगम;
वसुधा के जड़ अंतर में भी,
बन्दी नहीं है तापों की हलचल!
बिखर-बिखर मेरे दीपक जल!

मेरे निश्वासों से द्रुततर,
सुभग न तू बुझने का भय कर;
मैं अंचल की ओट किये हूँ,
अपनी मृदु पलकों से चंचल!
सहज-सहज मेरे दीपक जल!

सीमा ही लघुता का बन्धन,
है अनादि तू मत घड़ियाँ गिन;
मैं दृग के अक्षय कोशों से -
तुझमें भरती हूँ आँसू-जल!
सजल-सजल मेरे दीपक जल!

तम असीम तेरा प्रकाश चिर;
खेलेंगे नव खेल निरन्तर;
तम के अणु-अणु में विद्युत सा -
अमिट चित्र अंकित करता चल!
सरल-सरल मेरे दीपक जल!

तू जल जल होता जितना क्षय;
वह समीप आता छलनामय;
मधुर मिलन में मिट जाना तू -
उसकी उज्जवल स्मित में घुल-खिल!
मदिर-मदिर मेरे दीपक जल!
प्रियतम का पथ आलोकित कर!

- महादेवी वर्मा

About poem:
Her principal theme here is
तुझको पीड़ा में ढूंढूंगी and
तुझमें ढूंढूंगी पीड़ा |
search you in pain and search pain in you.

A poem from one of her first collection Yama. Yama is collection of her poems written in initial stage of her life. It also have poems written in her early childhood. Many of her poems are about a mystic lover(Influenced by period of modern romanticism in Hindi Poetry) and pain of separation from this lover. Although this mystic far away lover never participate actively, always remaining quiet.
She was a major poet of the Chhayavaad generation. She never married and devoted her life in poetry and social reforming.

Tuesday, July 3, 2012

पथ की पहचान




पूर्व चलने के बटोही, बाट की पहचान कर ले

पुस्तकों में है नहीं छापी गई इसकी कहानी,
हाल इसका ज्ञात होता है न औरों की ज़बानी,

अनगिनत राही गए इस राह से, उनका पता क्या,
पर गए कुछ लोग इस पर छोड़ पैरों की निशानी,


यह निशानी मूक होकर भी बहुत कुछ बोलती है,
खोल इसका अर्थ, पंथी, पंथ का अनुमान कर ले।
पूर्व चलने के बटोही, बाट की पहचान कर ले।

है अनिश्चित किस जगह पर सरित, गिरि, गह्वर मिलेंगे,
है अनिश्चित किस जगह पर बाग वन सुंदर मिलेंगे,

किस जगह यात्रा ख़तम हो जाएगी, यह भी अनिश्चित,
है अनिश्चित कब सुमन, कब कंटकों के शर मिलेंगे

कौन सहसा छूट जाएँगे, मिलेंगे कौन सहसा,
आ पड़े कुछ भी, रुकेगा तू न, ऐसी आन कर ले।
पूर्व चलने के बटोही, बाट की पहचान कर ले।

कौन कहता है कि स्वप्नों को न आने दे हृदय में,
देखते सब हैं इन्हें अपनी उमर, अपने समय में,

और तू कर यत्न भी तो, मिल नहीं सकती सफलता,
ये उदय होते लिए कुछ ध्येय नयनों के निलय में,

किन्तु जग के पंथ पर यदि, स्वप्न दो तो सत्य दो सौ,
स्वप्न पर ही मुग्ध मत हो, सत्य का भी ज्ञान कर ले।
पूर्व चलने के बटोही, बाट की पहचान कर ले।

स्वप्न आता स्वर्ग का, दृग-कोरकों में दीप्ति आती,
पंख लग जाते पगों को, ललकती उन्मुक्त छाती,

रास्ते का एक काँटा, पाँव का दिल चीर देता,
रक्त की दो बूँद गिरतीं, एक दुनिया डूब जाती,

आँख में हो स्वर्ग लेकिन, पाँव पृथ्वी पर टिके हों,
कंटकों की इस अनोखी सीख का सम्मान कर ले।
पूर्व चलने के बटोही, बाट की पहचान कर ले।

यह बुरा है या कि अच्छा, व्यर्थ दिन इस पर बिताना,
अब असंभव छोड़ यह पथ दूसरे पर पग बढ़ाना,

तू इसे अच्छा समझ, यात्रा सरल इससे बनेगी,
सोच मत केवल तुझे ही यह पड़ा मन में बिठाना,

हर सफल पंथी यही विश्वास ले इस पर बढ़ा है,
तू इसी पर आज अपने चित्त का अवधान कर ले।
पूर्व चलने के बटोही, बाट की पहचान कर ले।


- हरिवंशराय बच्चन