काश फिर से दो बरस की हो जाती ये उमरिया,
जब घुटनों के बल हमसब चलना सीखा करते थे
बार-बार गिरते थे और बार-बार समभलते,
पर धीरे-धीरे यूँ ही मंज़िल का पीछा करते थे
जब सच-झूठ की परख ना थी,
और सब अपने से लगते थे
जब हर बुराई से बच लेने को हम आँखें मींचा करते थे
जब दुश्मन जैसा कोई लफ़्ज़ ना था,
और सब याराना लगता था
दादी की कहानी बस सच थी,
और बाकी सब फ़साना लगता था
उसी पल में जाने को फिर जाने क्यूँ दिल करता है,
सब कुछ पास होने पर भी ये बचपन ढूँढा करता है
काश मैं फिर पा लेती वही छोटी सी नगरिया,
और काश फिर से दो बरस की हो जाती ये उमरिया...
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