Sunday, April 14, 2019

बिब्लियोथेक नेशनल, पेरिस



बिब्लियोथेक नेशनल, पेरिस
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मैं यहां बैठा हूं और एक कवि* को पढ़ रहा हूं।

यहां बहुत सारे लोग हैं, लेकिन मुझे तो जैसे किसी की ख़बर ही नहीं। वे भी अपनी किताबों में खोए हैं। कभी-कभी वे किताबों के पन्ने यों उलटते, जैसे नींद में डूबा कोई व्यक्ति दो स्वप्नों के बीच करवट बदलता हो।

आह, किताब पढ़ रहे लोगों के बीच होना कितना सुंदर है! वे हमेशा ऐसे क्यों नहीं होते? आप चाहें तो उनके पास जाकर उन्हें हल्के-से छू भी सकते हैं और उन्हें पता भी ना चलेगा। और अगर आप अपनी कुर्सी से उठते समय समीप बैठे किसी व्यक्ति से टकरा गए, और आपने इसके लिए माफ़ी मांगी, तो वो आपकी तरफ़ देखे बिना केवल उस दिशा में सिर भर हिला देगा, जहां से क्षमायाचना की आवाज़ आई थी। और उसके बाल वैसे मालूम होंगे, जैसे कोई अभी-अभी नींद से उठा हो। ये सब कितना अच्छा है!
और मैं यहां बैठा हूं और एक कवि को पढ़ रहा हूं। कैसा सौभाग्य! अभी यहां कोई तीन सौ लोग होंगे, और सभी कुछ ना कुछ पढ़ रहे हैं, लेकिन सभी किसी कवि को थोड़ ना पढ़ रहे होंगे। दुनिया में तीन सौ कवि ही कहां हैं? ईश्वर ही जानता है, कि वे इतने मन से किस चीज़ में डूबे हैं। किंतु मेरे सौभाग्य पर विचार कीजिए कि मैं, जो शायद इन सभी लोगों में सबसे दयनीय हूं, और दूसरे देश से आया हूं, यहां बैठा हूं और एक कवि को पढ़ रहा हूं। तो क्या हुआ, अगर मैं निर्धन हूं और मेरा सूट इतना अच्छा नहीं, अलबत्ता मेरी कमीज़ की कॉलर ज़रूर साफ़ है। लेकिन अभी मैं इन किताबों के साथ हूं, सभी से इतना दूर, जैसे कि मैं मर चुका हूं। और मैं एक कवि को पढ़ रहा हूं!
आपको पता भी है, कवि क्या होता है? वर्लेन का नाम सुना है? शायद आपके लिए उसका नाम कोई मायने नहीं रखता होगा। लेकिन मैं वर्लेन को नहीं पढ़ रहा हूं। मैं किसी और कवि को पढ़ रहा हूं, जो पेरिस में नहीं रहता। जिसका घर पहाड़ों पर है और जिसकी आवाज़ साफ़ हवा में बजती घंटियों सरीखी है। जिसको कि कहते हैं- "ख़ुशख़त!" वैसा ही एक कवि, जो घर की खिड़कियों और किताबघर के शीशों के बारे में बतलाता है। जो एकान्त से भरी दूरियों पर गहराई से सोचता है। मैं उस जैसी ही कविताएं लिखना चाहता हूं, लेकिन अभी तो मेरे सिर पर छत भी नहीं है और मेरी काठ की मेज़ें खलिहानों में रखी सड़ रही हैं।
कभी-कभी मैं र्यू-दे-सीन की छोटी दुकानों में चला जाता हूं। वो होती हैं ना क़ीमती गुलदानों या पुरानी किताबों की दुकानें। पूरा-पूरा दिन इन दुकानों में कोई झाँकने तक नहीं आता, लेकिन उनमें देखने पर आप पाते हैं कि दुकान-मालिक को जैसे इसकी परवाह ही नहीं, वे चुपचाप बैठे पढ़ते रहते और उनके पैरों के नीचे उनका कुत्ता सुस्ताता रहता। तब कभी-कभी मैं यह भी सोचता हूं कि भरे बाज़ार में वैसी एक दुकान ख़रीद लूं और उसकी शीशे की दीवारों के पीछे बीस साल तक चुपचाप, अकेला बैठा रहूं!
~ रिल्के
[ "द नोटबुक्स ऑफ़ माल्ते लॉरिड्ज़ ब्रिग्गे" ]

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