Sunday, February 2, 2020

प्रोलॉन्ग्ड ग्रीफ़ डिसॉर्डर



"समय सारे घाव भर देता है" --- घिसे हुए शब्दों का एक मलहम है। सच तो यह है कि समय सभी के सारे घाव नहीं भर सकता क्योंकि ऐसा करना उसके वश में ही नहीं।

संसार के सबसे बड़े कष्ट मृत्यु-कष्ट माने जाते हैं। स्वयं की आसन्न मृत्यु तो आमतौर पर कष्टप्रद होती ही है , परिजनों के लिए भी पीड़ा-प्रदायिनी बनकर प्रकट होती है। जो दुनिया छोड़ जाता है , वह तो रहता ही नहीं --- सो उसका कष्ट तो कट जाता है। किन्तु जो जाने वाले की यादों के साथ पीछे जीवित छूट जाते हैं , वे लम्बे समय तक कष्ट के साथ जीवित रहा करते हैं।

घनिष्ठ परिजन का मृत्युशोक बड़ा कष्ट है ; अँगरेज़ी में इसके लिए ग्रीफ शब्द का चलन है। ग्रीफ यानी ऐसा मृत्यु-शोक जो किसी ख़ास के लिए हो : वह जिसके जाने से लम्बे समय तक व्यक्ति का मन व्यथित रहा करे। जानकार बताते हैं कि औसतन प्रत्येक मृत्यु पर पाँच लोग मृत्युशोक मनाते हैं : यह संख्या न्यूनाधिक हो सकती है , लेकिन एवरेज यही है।

मृत्युशोक से पीड़ित व्यक्ति सामाजिक सम्पर्कों से कट जाता है। गहन रूप से सर्वदा दुःखग्रस्त रहते हुए अपनी सामाजिक भूमिका और उत्तरदायित्व से कटा एकाकी जीवन बिताने लगता है। समय बीतता है। इसके साथ ढेरों ( बल्कि अधिकांश ) अपने जीवन की खोयी पुरानी लय वापस पा लेते हैं , किन्तु फ़ीसदी के आसपास ऐसे रह जाते हैं , जो इस कष्ट से उबर ही नहीं पाते। कभी नहीं। कदापि नहीं। शारीरिक-मानसिक-सामाजिक रूप से ये लोग मृत्युशोक-तले अपना सम्पूर्ण जीवन निकाल दिया करते हैं।

मृत्युशोक किसे दीर्घकालिक कष्ट देगा और किसे सामान्य अल्पकालिक --- इसका निर्णय कैसे हो ? हर व्यक्ति निजी व सामाजिक तौर पर अलग-अलग तरह से किसी ख़ास परिजन की मृत्यु से समझौता करता है। व्यक्तिगत तौर पर इससे समझौता करने की सबसे अलग स्टाइल होती है , सबके पास भिन्न-भिन्न क़िस्म के संगी-साथी होते हैं। फिर यह भी महत्त्व है कि व्यक्ति का घरेलू और व्यावसायिक जीवन कैसा है और क्या उसके पास कोई और भावनात्मक निवेश लायक सम्बन्ध है अथवा नहीं।

सन् 2018 में विश्व-स्वास्थ्य-संगठन ने मानसिक रोगों की सूची में एक नये रोग को जगह दी। इसे प्रोलॉन्ग्ड ग्रीफ़ डिसॉर्डर ( दीर्घकालिक मृत्युशोक ) का नाम दिया गया और रोगों के अन्तरराष्ट्रीय वर्गीकरण आईसीडी 11 में इसका ज़िक्र है। यह वर्गीकरण स्वास्थ्य-तन्त्रों में सन् 2022 से लागू हो जाएगा। इसे डायग्नोज़ करने के लिए किसी व्यक्ति का अपने अंतरंग की मृत्यु के आधे साल बाद तक तीव्र भावनात्मक पीड़ा की अनुभूति होना और उसके कारण दैहिक-मानसिक-सामाजिक उत्तरदायित्वों को न निभा पाना शामिल है।

सामान्य मृत्युशोक और दीर्घकालिक मृत्युशोक में अन्तर है और इसे आम जन व मीडिया , दोनों को ठीक से समझने की ज़रूरत है। डॉक्टरों तक ने अनेक बार प्रोलॉन्ग्ड ग्रीफ़ डिसॉर्डर को डिप्रेशन मानकर उसका इलाज किया है , जो कि सही नहीं है। ज़ाहिर है जितना बेहतर इस रोग को सभी समझेंगे , उतना इससे मुकाबला कर सकेंगे। इसके उपचार में साइकोएजुकेशन की भूमिका बड़ी है। अनेक बार दीर्घकालिक मृत्युशोक झेलते लोग उन व्यक्तियों-जगहों-वस्तुओं बचते हैं , जिनके कारण उन्हें दिवंगत व्यक्ति की याद आती है। लेकिन उपचार के दौरान उन्हें इस पलायन की बजाय उसके लिए धीरे-धीरे तैयार किया जाता है। अतीत के कष्टों से जूझने के साथ ही उन्हें भविष्यगत योजनाओं के लिए भी नीतिगत सलाह दी जाती है।

जो किसी प्रियजन की मृत्यु से नहीं उबर पा रहा , उसे केवल समय के सहारे छोड़ना नादानी-नासमझी-निष्ठुरता है। समय के पास सारे ज़ख्मों को भरने का माद्दा नहीं है , समय नासूरों का इलाज करना नहीं जानता। उनके लिए मनोचिकित्सक की मदद लेनी हमेशा ज़रूरी होती है।

- डॉ.स्कंद शुक्ल

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